फिर उठा परदा
फिर वही रात, वही बारिश
वही मिटटी की महक
और वही चमकती बिजलियों से रोशन आसमान
न जाने क्यों लगता है यह मनज़र नया सा हर बार
न तारों की चमक, न चाँद की रौशनी
फिर भी न जाने क्यों
खूबसूरत है ये बारिश का समा
न जाने क्यों ये बूँदें
किलकारियाँ मारते बच्चों को हसा देती है हर बार
न जाने क्यों
भीगे हुए कपडों में लहलहाती है वोही महक हर बार
लेकर एक नया रंग, एक नया अंदाज़
न जाने क्यों
बारिश की इस चादर को हिलाती ये मदमस्त हवा
बयान कर जाती है एक नया सुर, एक नयी ज़बान
न जाने क्यों
रात की वो आगोश बदल जाती है
न जाने क्यों
टिड्डों की किरकिट बंद और मेंद्कों की टर्र टर्र शुरू हो जाती है
न जाने क्यों
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