Kufr-ae-ishq
तेरे नाम को उँगली से लिखता रहा
क्या दिन क्या रात क्या लम्हा
कुछ भी ज़हन में न रहा
बारम्बार बस लिखता रहा
स्याह कलम और कागज़ का रूहानी संगम
बस ख़ामोश बैठ मैं तकता रहा
अपनी मोहब्बत की बेहिसी को
बस यूं समझ कोसता रहा
चश्म-ए-नम को खूं से सीन्चता रहा
ख़ल्क-ए-ख्यालों के तबस्सुम
बस यूं ही उजड़ते देखता रहा
और उल्फतों को सीने बांधता रहा
असासे-दीन को बेच कर
कुफ्र को पनाह देता रहा
बस, अपनी दुनिया लुटाता रहा
क्या दिन क्या रात क्या लम्हा
कुछ भी ज़हन में न रहा
बारम्बार बस लिखता रहा
स्याह कलम और कागज़ का रूहानी संगम
बस ख़ामोश बैठ मैं तकता रहा
अपनी मोहब्बत की बेहिसी को
बस यूं समझ कोसता रहा
चश्म-ए-नम को खूं से सीन्चता रहा
ख़ल्क-ए-ख्यालों के तबस्सुम
बस यूं ही उजड़ते देखता रहा
और उल्फतों को सीने बांधता रहा
असासे-दीन को बेच कर
कुफ्र को पनाह देता रहा
बस, अपनी दुनिया लुटाता रहा
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