Sheher - Ek Nazar
कभी जागते, तो कभी सोते देखा है इस शहर को हमने ग़ुम होते देखा है ईमारतों के पीछे छुपे हुए वो बाग़ हवेलियों महलों के टूटते हुए टाट अजी दो मंज़िले को ग्यारह मंज़िले से उलझते देखा है इस शहर को हमने ग़ुम होते देखा है मोटर और टांगों की खीँचातान भी है शोर-ओ-ग़ुल में सुकूँ भी कहीं है नवाबी शौकियों को भी ख़ार खाते देखा है इस शहर को हमने ग़ुम होते देखा है सच का जामा ओढ़े झूठ को बेपरवाह गश्त लगाते देखा है तहज़ीब के दायरों में लिपटी जिस्म की नीलामी को देखा है रात के सन्नाटों को दिन में हमने ग़ुम होते हुए देखा है चाँद की चौदहवीं को कुछ यूं अमावस से गले मिलते देखा है बस, चंद लम्हात में हमने कई ज़िन्दगियाँ गुज़रते देखा है अजी सभी कुछ यहां होते हुए देखा है इस शहर को हमने ग़ुम होते देखा है