राम मंदिर निर्णय के समय का भाव

जब राम मंदिर का निर्णय घोषित हुआ था, तब मन में चंद विचार आये थे। उन्हें आज यहाँ छोड़े जा रहा हूँ।

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आज वह क्षण आ गया, जिसकी प्रतीक्षा लगभग 500 वर्षों से अनेकों लोग, अनेकों गुट, अनेकों भक्तजन कर रहे थे। वह लल्ला, जिनके दर्शन की आस में अनेकों आँखें खुलकर बन्द हो गयीं, आज अश्रुलिप्त हैं यह कल्पना कर के सम्भवतः उनके प्रभु को उनका स्थान, उनका घर अंततः मिल ही जाएगा। आज अनेकों महापुरुषों, जीवित या जीवनपर्यन्त, की तपस्या और त्याग का फल उन्हें प्राप्त हुआ है। उन्होनें सर्वस्व त्याग दिया, उनके जीवन में अनेकों यातनाएं सहीं, क्योंकि उनकी आस्था इस एक स्थान की पवित्रता में हैं। इस आस्था पर अनेकों प्रश्न उठाए जाते हैं। परन्तु क्या मात्र हिंदुओं की आस्था ही प्रश्नों का उत्तर देने के लिए है? 

पूछा जाता है - मन्दिर क्यों होना चाहिए? ऐतिहासिक तथ्य को नकारने का ठीकड़ा हमारे ही सिर फोड़ना होता है। वैसे ही आस्था क्या है? क्या नास्तिकता और निरीश्वरवाद एक प्रकार की आस्था नहीं है? आप प्रत्यक्ष को नकार दूसरों के सत्य को झुटलाने का प्रयास बन्द करें, तो बहुत बड़ा उपकार होगा इन महात्माओं का। वहाँ स्कूल, अस्पताल, विश्वविद्यालय क्यों नहीं बनाते? क्यों, और अन्य स्थान नहीं है? उनका अगर अभाव है तो इसे वहाँ बनाकार कैसे पूरा किया जाएगा? ये छद्मवादी सोच आपकी असफलता को छुपाने का एक अत्यंत घटिया प्रयास है, अतः यह विचारज्ञान बाँटने की चेष्टा न करें।

प्रगतिशील, शिक्षित होकर कैसे आप मन्दिर का समर्थन कर सकते हैं? शिक्षित है, अभद्र नहीं। हम अपनी संस्कृति, अपनी आस्था, अपने विश्वास और अपनी धरोहर को नकारना नहीं है हमारी प्रगति का भाग। हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की आहुति इस तरह की अत्यंत तर्कहीन वक्तव्यों को सुनने के लिए नहीं दी थी। उनके साहस, शौर्य और अदम्य आस्था ने उन्हें पराजय स्वीकारने के जगह धर्म के प्रति प्रयासरत रहन सिखाया। उनसे प्रेरणा लेता हूँ, उन्हें नमन करता हूँ और उनके दिखाए धर्मपथ पर चलकर अपनी सभ्यता और अपनी संस्कृति का मान ऊँचा रखने का निरन्तर प्रयास करता रहूँगा, यही प्रार्थना करता हूँ।

और हाँ, प्रार्थी हूँ आप सभी वर्ग विशेष बुद्धिजीविओं से के हमारा, हमारी आस्था और विश्वास का नहीं तो सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना न करें। 

यतो धर्म: ततो जय:। 

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