एक और अवसर - एक कहानी
सिंगरौली में गर्मियों का मौसम बहुत ही मुश्किल से बीतता है। श्याम तो खासतौर पर बहुत ही सकट गर्म होती है, मानव की सूरज जाते-जाते अपनी गर्मी रात को उधार दी क्या हो। वैसे ही शहर में पावर प्लांट की कोई कमी तो है नहीं उनकी गर्मी भी शायद इस बेइंतहा गर्मी में कुछ ना कुछ योगदान करती होगी। बहरहाल जिस तरह यह मौसम बीत रहा था, उसमें कुछ नवीनता तो नहीं थी हां इतना जरूर था के लोगों के अंदर बारिश के लिए एक अजीब सा उतावलापन पैदा हो रहा था।
हाल ही में नवीन दिल्ली से आया था अपनी पोस्टिंग संभालने के लिए। दिल्ली की गर्मी की तो उसे बहुत जानकारी थी लेकिन उसके ख्यालों में भी उसने ऐसी गर्मी के बारे में सोचा तक ना था। दिनभर पावर प्लांट की झुलसती गर्मी से बेहाल हो कर वह जब शाम को अपने क्वार्टर पहुंचता था तो दरवाजा खोलने पर अंदर से आती गर्म हवा के थपेड़ों से लिपट जाता था। किस मनहूस घड़ी में उसकी तकदीर लिखी गई थी, यही सोच सोच कर घर में ऐसी चलाता और एक घंटा बिना कुछ करे बस वही सोफे पर सो जाता। ना जाने कब रात आ जाती, एक का एक उसकी नींद खुलती, कभी खाना बनाता अपने लिए और और कई बारी भूखे पेट ही सो जाता। हां, लेकिन एक चीज जरूर थी जो रात को होती थी। एक पेड़ था उसे घर के बहुत ही करीब- शायद रात की रानी का पेड़ था। उसके फूलों की सुगंध किसी तरह हवा के तार पर बंद कर उस तक पहुंचती और वो अपनी क्वार्टर की बालकनी में खड़ा होकर उस भीनी भीनी सुगंध का आनंद जरूर लेता। न जाने क्या कशिश थी सुगंध में जो उसे अतीत में ले जाता था, एक ऐसी दुनिया में उसे पहुंचा देता था, जहां यह गर्मी, यह धूल, यह कोयला और यह छोटे से शहर का वही पुराना पन कहीं पीछे छूट जाता, और रात के अंधेरों में खो जाने के बाद उसे आखिरकार सुकून की नींद आ ही जाती है।
कुछ ही साल हुए थे नवीन को नौकरी शुरू किए। पहले दिल्ली में ही मुख्यालय में नियुक्ति थी। अचानक एक दिन उसे खबर दी गयी के सिंगरौली के प्लांट में विस्तरिकरण का काम आरम्भ करना है, और प्रोजेक्ट मैनेजर उसे नियुक्त किया गया है। दो साल के लिए। बस जी, फिर क्या था - बाँधे बोरिया बिस्तरा और चल पड़े सिंगरौली की ख़ाक छानने! हाँ, तनख्वा में वृद्धि का लालच उपयोगी सिद्ध हुआ - दिल्ली छोड़ कर जाने का कुछ तो भुगतान बनता ही था।
उस रात बहुत अजीब सा सपना उसकी आँखों के सामने चला। एक अजीब सी धुंध चारों ओर फैली हुई थी, ठीक वैसी जैसे दिल्ली में सर्दियों में अक्सर दिखा करती थी। पर धुंध का रंग एकदम काला! कुछ समझ सके, उससे पहले ही धुंध छंट जाती है, और काला अँधेरा, जिसे चीरती हुई चाँद की मद्धम रोशनी सब ओर से घेर लेती है। वो फिर भी सतर्क सा महसूस करता है, पहचानता है के ये रोशनी भी उधारी की है, एक छलावा है। असल में तो सिर्फ़ घना अँधेरा ही रात का साया है, और वही एक सच है।
आँख खुली, तो पाया कर मोबाइल में लगे अलार्म की घन्टी पुरज़ोर बज रही है। इस घन्टी के बजने से सिर में एक अजीब झन्नाहट हो रही थी, पर यही होश दिला रही थी। किसी तरह अपने शरीर को मनाकर उठना हुआ, और दिन की तैयारी शुरू हुई। आज वैसे भी बहुत लम्बा दिन था, बहुत ज़रूरी दिन था - प्लांट की जान, उसका बायलर आज लगने वाला था। एक भी चूक, और महीनों की मेहनत एक क्षण में बर्बाद। ऑफिस पहुँचते पहुँचते नवीन के अंदर एक दृढ़ निश्चय बन चुका था - जो भी हो जाए, आज चूक नहीं होने दी जाएगी। कड़ी मेहनत और लम्बी मशक्कत के बाद, आखिरकार काम ख़त्म हुआ, तो ध्यान आया के दिन ढल चुका था और शाम भी रात का रुख अपना चुकी थी। इस बीच चाय और समोसे लगातार सारी टीम का पोषण कर रहे थे। ज़रूरी भी था - एक पल का विश्राम करोड़ों की मेहनत को मिट्टी में मिला सकती है। नवीन इस मण्डली का लीडर, तो उसकी ज़िम्मेदारी भी सबसे अधिक थी। बस, और क्या था। अपने अभी तक के सारे अनुभव को दांव पर लगाकर, जब काम दिन का पूरा हुआ, तब चैन की साँस भर नवीन अपने मनपसंद होटल जी एस ग्रैंड के रेस्टोरंट में खाना खाने वो निकल पड़ा। यूँ तो कुछ सहकर्मी से अच्छी बातचीत थी, पर किसी से भी इतनी मित्रता कभी बनी ही नहीं। और वैसे भी, नवीन को कुछ चीज़ें अकेले करना पसन्द था। खास तौर पर जब उसे अपने मन की थकावट मिटानी होती थी।
"नवीन! तुम यहाँ कैसे?" सहसा एक आवाज़ पीछे से आई। नवीन ने मुड़ कर देखा, तो नीली रौशनी से खेलती पीले बल्ब की रोशनी में उसे वही चहरा दिखाई दिया, जो जाना पहचाना था, जिससे उसका एक पुराना रिश्ता रहा था। हाँ, उसके मन ने उससे कहा, यह वही है।
तविषि वहीं खड़ी हुई थी। उसके साथ एक और सज्जन था। सम्भवतः पहचान का होगा कोई। नवीन हल्के से मुस्कुराया। "आप यहाँ कैसे?"
"__ पावर प्लांट का निरीक्षण करने आयी थी। हमारा काम है आजकल पर्यावरण अभियंत्रो के लिए पैरवी करना। शायद भूल गए तुम।" अपने साथ खड़े सज्जन की ओर संकेत करते हुए फिर बोली, "मेरे सहकर्मी, प्राणेश। प्राणेश, ये नवीन हैं, हमारे कॉलेज के मित्र। कभी सोचा भी न था के इससे यहाँ, ऐसे भेंट होगी।"
हाथ मिला लिया, तो तविषि यह कहकर चली गयी की वो कल बात करेगी। पर नवीन की मन की शांति भंग हो गई थी। यही एक चीज़ उसे पसन्द नहीं थी, पर समय और परिस्थिति आपके वश में नहीं होते, आज फिर उसे संज्ञात हुआ। खाना पूरा कर वो चल पड़ा अपनी बाइक पर प्लांट की कॉलोनी में आवंटित क्वार्टर की ओर, पर पहुँच के भी उसके मन को शांति नहीं मिल रही थी। नींद ने भी साथ देने से जैसे मना कर दिया हो उस रात को। बस, स्मृतियों की एक निरन्तर बहती धारा उसे डुबोए जा रही थी, और नवीन को समझ नहीं आ रहा था के वह उससे कैसे अपने को सुरक्षित करे।
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वह दिन थे इंजीनियरिंग के। तीसरा वर्ष था, और कठिन वर्ष था, पर पढ़ाई की आपाधापी में भी समय निकल ही आता था वह सब करने के लिए जो अधेड़ उम्र में लड़के-लड़की अपने यौवन को पहचानने में। और भी अनेकों रुचियाँ होती हैं युवकों-युवतियों में, और वह सब भी मान्य हैं - संगीत, अभिनय, कला, खेल-प्रतिस्पर्धा। दरअसल नवीन था कॉलेज की फुटबॉल टीम का कप्तान। इंटर-कॉलेज प्रतियोगिता थी, और वह दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी कैम्पस के __ कालेज के विरुद्ध खेलने गया था। हार तो बहुत बुरी हुई थी, लेकिन उस पराजय के बहाने उसकी भेंट तविषि से हुई थी। पर्यावरण विज्ञान में रुचि रखने वाली वह रसायन शास्त्र की छात्रा को भी कुछ अनुभूति तो हुई थी उस दिन, और दोनों के बीच सेलफोन पर मैसेज के माध्यम से वार्ता आरम्भ हुई थी। मैसेज कब घंटों लम्बी चलने वाले फ़ोन काल में बदल गयी, पता ही नहीं चला। पता था तो इतना, के यह संबंध गूढ़ता की अभेद चादर ओढ़ रहा था।
कभी कभी प्रेरणा चाहिए होती है जीवन में आगे बढ़ने के लिए, और कहीं न कहीं नवीन के हृदय में एक परिवर्तन हो रहा था। कुछ दूरदर्शी विचार आ रहे थे उसे, और पूरा प्रयास किया गया के आगे की पढ़ाई के लिए या एक अच्छी नौकरी के लिए वह कुछ करे। गेट परीक्षा निकट थी, और उसमें प्राप्त अंक अनेकों जगहों पर नौकरी के इंटरव्यू तक ले जाने के लिए उपयुक्त थे, अतः नवीन ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। स्कोर अच्छा था, और कुछ जगहों पर उसके सिफ़ारिश पत्र भी स्वीकारे गए। अपेक्षा थी के शीघ्र उसे उचित नौकरी मिलेगी और शायद वह बात कर पाएगा आगे के जीवन के विषय में।
उस दिन वह गया था उसी कॉलेज में मिलने। समाप्ति हो गयी थी शिक्षा की, और समय था काटने को। तो क्यों नहीं तविषि से मिला जाए। वह घुसा ही था कॉलेज के भीतर की उसे तविषि दिख गई किसी के साथ। ध्यान दिया तो जाना की वह उसका मित्र सुमित था। दोनों एक दुसरे में मग्न थे, और उन्हें संसार का कोई अता-पता न था। अनभिज्ञ थे वह दोनों, एक दूसरे में लीन। यह सब क्या था और क्यों था, कुछ समझ नहीं आ रहा था। चंद माह पूर्व ही उसने सुमित से तविषि का परिचय कराया था। क्या पता था, के उसे यह दिन देखना पड़ेगा।
मन में एक अजीब खटास हो गई। क्रोध, उदासी, अविश्वास का वक झुंड मक्खियों सा उसके हृदय और मन को बारम्बार डंक मारता रहा। उसके बाद तो बस एक दिन वो था और एक आज का दिन - न किसी से कोई सम्बन्ध था, न कोई संजोया था। उस परिवेश के लोगों के साथ उसने मानो दूरी बनाने का अटल निर्णय कर लिया था। नहीं जानना चाहता था वो किसी को भी - सम्भवतः उसे उस समय को अपनी स्मृति से मिटाने का एक भरसक प्रयास आरम्भ हुआ था। घरवालों के प्रश्नों का उत्तर अवाक् रहकर दिया जाता जब सब पूछते के उसके कॉलेज के साथी कहाँ हैं, किस हाल में हैं। कोई अलबत्ता सेरिअलों का स्टार बन जाता तो भी उसका वर्णन मुख से न निकलता। बस चन्द ही महीने बाद गेट की परीक्षा था, उसे इलेक्ट्रिकल का परिणाम लाना था, अपनी पसन्द की सरकारी नौकरी के लिए महत्वपूर्ण पड़ाव पार करना था। अपने को डुबा दिया था नवीन ने परीक्षा में रैंक प्राप्त करी। इंटरव्यु में जब निवेदन दिया तो कई कड़े प्रश्नों का उत्तर उसने एक अलग ही स्तर की बेबाक़ी से दिया, जो पैनल के सदस्यों को कुछ सीमा तक प्रभावित कर गया। उसकी नौकरी लगी, और वो भी मुख्यालय में!
काम में अपने आप को डुबो दिया नवीन ने। कोई मित्र नहीं, कोई पहचान नहीं, दफ्तर में भी भोजन अक्सर एकाकी करना - कई लोग अजीब निगाहों से देखते। किन्तु काम को लेकर उसकी मात्र प्रशंसा के कुछ और सुनने को नहीं मिलता। जीवन की छोटी छोटी खुशियों का अभाव लोग महत्वकांक्षा समझ बैठे - बस, कभी सड़क के आवारा कुत्तों को खाना खिलाना या इयरफोन लगा संगीत सुनते हुए किताबें पढ़ना था, जो नवीन को उसकी एक अपनी छोटो सी दुनिया में ले जाता। वही नवीन जो कभी किसी को समझ नहीं आता अपने उस स्वरूप में आता जो कहीं खो गया था, जिसकी आकृति कुछ धूमिल हो गयी थी। नवीन ने लेकिन कभी यह न पता लगने दिया के उसके हृदय में क्या छुपा था।
चौथा साल हुआ, और उसे सिंगरौली आने का आदेश आया। माँ के कहने पर भी उसने विवाह के लिए भारी मन से बात को हाँ कहा, परन्तु मन में एक फाँस थी, जो कभी नहीं निकली थी। पुरानी तस्वीरें, पुरानी मेसेज, पुराने तोहफ़े मिटा तो सकते हैं, पर पुरानी स्मृतियाँ यूँही नहीं जातीं। सिंगरौली मानो जैसे एक अवसर था उस सब से दूर भाग आने का। बस, जैसे के वह प्रसिद्ध शेर था न - मैं और मेरी तन्हाई। उसे क्या पता था, ऐसा होगा।
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आँख खुली, तो फोन का अलार्म चीखता पाया। उठ कर नवीन ने पाया के उसे शीघ्र तैयार हो प्लांट जाना होगा। किसी तरह सब कर करा कर वह बाइक पर पहुँचा तो उसका फ़ोन बज उठा। एक अंजान नम्बर था, पर मन में न जाने क्यों एक अजीब सी चुभन उठी, हृदय में कुछ छलका। फ़ोन उठाया, तो उस ओर तविषि का स्वर था।
"हेलो नवीन, पहचाना? तविषि!"
"हाँ, पहचाना, बताओ," मन के सैंकड़ों प्रश्नों के मध्य बस यही निकल सका।
"क्यों न आज मिलते हैं, जी एस ग्रैंड में? वैसे भी, इतने सालों बाद मिले हो। शुक्र है नम्बर वही है," कुछ हँसते हुए तविषि ने कहा।
नवीन ने हामी भरी, और शाम 7 बजे मिलना तय हुआ। 6 बजने के बाद नवीन क्वार्टर वापिस पहुँच कपड़े बदल जाना था नवीन ने। पर पूरा दिन आज नवीन कहीं खो गया था। उसने कुछ दृश्य देखे थे तब, जो आज भी उसके सम्मुख आ रहे थे। मन में बारम्बार वही घूमते रहे, और काम में अड़चन बनते रहे। आज भगवान की कृपा से कुछ करने को नहीं था, क्योंकि मिस्त्री बीमार होने के चलते आ नहीं पाया। पर अपने केबिन में बैठे बैठे मन टटोलता रहा उन्हीं बातों को। समझ बन्द हो रही थी, सुन्न हो चली थी। एक पीड़ा पुनः उठ गयी थी। पर यह सब....नवीन बस यूँही चुपचाप असमंजस में पड़ा रहा।
शाम हुई, घर गए। कपड़े बदलते हुए भी मन की फाँस बार बार कचोटती रही। क्यों यह सब? अब क्या? क्या मिलेगा इसके बारे में सोच कर?
जी एस ग्रैंड पहुँचा वो। आज सप्ताह के मध्य का दिन था, तो अलबत्ता दफ्तर के लोग नहीं थे वहाँ। सिंगरौली के छोटे से कस्बानुमा नगर में दो या तीन ही तो थे रेस्टोरेंट जो बड़े शहर में रहे व्यक्ति को पसंद आ सकता था। वह नीली रोशनी, वह नब्बे के दशक के फिल्मी गाने, और वहाँ बैठी तविषि। ऑंखे उस ओर गयी तो देखा वह अकेली थी, और उसने उसे देख लिया था, और एक बड़ी मुस्कान से उसका स्वागत किया। थोड़ी कोने की टेबल ली थी, जहाँ कुछ अकेलापन था, कुछ एकांत का भाव था। आर्डर दिया, और खाना खाते हुए कई बातें हुईं। स्मृतियों की झड़ी लगाई गई, मानो कुछ और था ही नहीं। भरसक प्रयास था बीते समय को पीछे खींच लाने का। हँसी, खुशी, अल्हड़पन, यादों की फुलझड़ियाँ तो बहुत जलीं, लेकिन नवीन के मुख पर एक झूठी सी हँसी बनने के अलावा कुछ नहीं आ पाया। बातों बातों में सम्पर्क के अनेकों प्रयास होए, कुछ संकेत दिए गए, पर नवीन मन ही मन हैरान होके नकार देता।
शाम कैसे बीती, समझ नहीं आया। हाँ, समय का आभास बहुत हुआ। "समय बहुत हो गया है, हमें निकलना चाहिए," नवीन बोलै। अचरज की बात यह थी के आज उन दोनों को छोड़ कोई ग्राहक नहीं थे रेस्टोरेंट में।
"कोई नहीं नवीन, कुछ देर रुक जाओ। नहीं तो ऊपर चलो, मैं यहीं ठहरी हुई हूँ," तविषि ने एक दम से कहा।
नवीन ने उस बात को अनसुना कर दिया। बहुत अजीब लगा यह सुन उसे - इतनी निकटता आज? वो भी इतने वर्षों बाद? "मैं चलता हूँ," उसने बिल देते हुए बोला, और देखा के तविषि भी साथ चल पड़ी थी उसके। कुछ अटपटा सा लगने लगा, पर अनदेखा करने का प्रयास तो चलता रहा। जैसे जैसे बाहर की ओर पग बढ़ते रहे, वैसे वैसे तविषि की हँसी और किलकारियाँ छलकती रहीं।
बाहर आए, तो देखा के कोई नहीं था। एकाएक पता चला के हाथ गर्दन पर लिपटे हुए थे। एक छवि बनी हुई थी चेहरे पर, जो प्रयास कर रही थी रिझाने की। एक शरारत थी आँखों में, एक भाव था जो कहने का प्रयास कर रहा था नवीन को समझाने का के उसकी एक ज़रूरत थी।
नवीन ने अपने आप को छुड़ाया। उसे बड़ा ही अजीब लग रहा था यह सब देख कर। "क्या कर रही हो तविषि? लोग देख लेंगे!"
"कौन लोग नवीन, यहाँ कोई नहीं," तविषि हँसने लगी। "वैसे भी, कौन जानता है नुझे यहाँ?"
"सुमित को क्या जवाब दोगे?"
एक अजीब शांति ढाँप गयी क्षण को। तनाव था, पर तविषि ने उसे तोड़ते हुए पूछा - "इस सब का सुमित से क्या लेना देना?"
"मेरा नहीं, सुमित का तो होगा।"
"सुमित को जो नहीं पता, उससे तुम्हे क्या लेना देना? वैसे भी, उस जैसे निरर्थक व्यक्ति के साथ मैं क्या करूँगी?"
"मतलब?" नवीन को झटका लगा। क्या उसका मैन सही राह पर चल पढ़ा था? जो चित्र मन उकेर रहा था, क्या वही सत्य था?
"एक ऐसे व्यक्ति को क्यों अपने से जोड़ूँ, जो कभी भी मुझे वो नहीं दे सकता जो मुझे चाहिए? एक दिन उठी तो देखा, आदर्शवाद उसके मन पर सवार हो गया। लाखों की तनख्वा को त्याग पहुँच गया एक कस्बे में काम करने, और मुझे भी झोंक दिया इस नरक नुमा जीवन में। क्या मिला है मुझे इस सब से? मैं छोड़ देना चाहती हूँ इस जीवन को।"
"मैं ही मिला था तुम्हें?" नवीन ने एक तल्ख़ स्वर में पूछा।
"मुझे नहीं पता के तुम मुझमें रुचि रखते थे? सम्भवतः आज भी है, वरना मुझसे मिलने नहीं आते यहाँ। मैं आज भी वही हूँ नवीन, और समझ गयी हूँ के मुझे वो जीवन चाहिए जो तुम मुझे दे सकते हो। प्रेम तो तुम्हें मुझसे आज भी है न? मुझे निराश मत करो नवीन, मुझे अपना लो। हम दोनों एक दूसरे को एक और अवसर क्यों नहीं दे सकते?"
नवीन ने एक निगाह भर कर तविषि की ओर देखा। मन में प्रश्नों का जाल, भावनाओं का एक समंदर जो अब तक प्रत्यक्ष था, एकाएक शाँत हो गया। एक किरण एक दम से अंधकार को चीर के मन के कोनों को प्रकाशमय कर गयी। नवीन ने तविषि की ओर देख कर एक मन्द से मुस्कान अपने चेहरे पर उकेरी।
"बस तविषि, आज मुझे अपना उत्तर मिल गया।"
बस, इतना कहकर नवीन ने अपनी बाइक को शुरू करा, और अंधेरी रात को चीर तविषि को बिन देखे छोड़ अपने घर की ओर चला गया।
हाल ही में नवीन दिल्ली से आया था अपनी पोस्टिंग संभालने के लिए। दिल्ली की गर्मी की तो उसे बहुत जानकारी थी लेकिन उसके ख्यालों में भी उसने ऐसी गर्मी के बारे में सोचा तक ना था। दिनभर पावर प्लांट की झुलसती गर्मी से बेहाल हो कर वह जब शाम को अपने क्वार्टर पहुंचता था तो दरवाजा खोलने पर अंदर से आती गर्म हवा के थपेड़ों से लिपट जाता था। किस मनहूस घड़ी में उसकी तकदीर लिखी गई थी, यही सोच सोच कर घर में ऐसी चलाता और एक घंटा बिना कुछ करे बस वही सोफे पर सो जाता। ना जाने कब रात आ जाती, एक का एक उसकी नींद खुलती, कभी खाना बनाता अपने लिए और और कई बारी भूखे पेट ही सो जाता। हां, लेकिन एक चीज जरूर थी जो रात को होती थी। एक पेड़ था उसे घर के बहुत ही करीब- शायद रात की रानी का पेड़ था। उसके फूलों की सुगंध किसी तरह हवा के तार पर बंद कर उस तक पहुंचती और वो अपनी क्वार्टर की बालकनी में खड़ा होकर उस भीनी भीनी सुगंध का आनंद जरूर लेता। न जाने क्या कशिश थी सुगंध में जो उसे अतीत में ले जाता था, एक ऐसी दुनिया में उसे पहुंचा देता था, जहां यह गर्मी, यह धूल, यह कोयला और यह छोटे से शहर का वही पुराना पन कहीं पीछे छूट जाता, और रात के अंधेरों में खो जाने के बाद उसे आखिरकार सुकून की नींद आ ही जाती है।
कुछ ही साल हुए थे नवीन को नौकरी शुरू किए। पहले दिल्ली में ही मुख्यालय में नियुक्ति थी। अचानक एक दिन उसे खबर दी गयी के सिंगरौली के प्लांट में विस्तरिकरण का काम आरम्भ करना है, और प्रोजेक्ट मैनेजर उसे नियुक्त किया गया है। दो साल के लिए। बस जी, फिर क्या था - बाँधे बोरिया बिस्तरा और चल पड़े सिंगरौली की ख़ाक छानने! हाँ, तनख्वा में वृद्धि का लालच उपयोगी सिद्ध हुआ - दिल्ली छोड़ कर जाने का कुछ तो भुगतान बनता ही था।
उस रात बहुत अजीब सा सपना उसकी आँखों के सामने चला। एक अजीब सी धुंध चारों ओर फैली हुई थी, ठीक वैसी जैसे दिल्ली में सर्दियों में अक्सर दिखा करती थी। पर धुंध का रंग एकदम काला! कुछ समझ सके, उससे पहले ही धुंध छंट जाती है, और काला अँधेरा, जिसे चीरती हुई चाँद की मद्धम रोशनी सब ओर से घेर लेती है। वो फिर भी सतर्क सा महसूस करता है, पहचानता है के ये रोशनी भी उधारी की है, एक छलावा है। असल में तो सिर्फ़ घना अँधेरा ही रात का साया है, और वही एक सच है।
आँख खुली, तो पाया कर मोबाइल में लगे अलार्म की घन्टी पुरज़ोर बज रही है। इस घन्टी के बजने से सिर में एक अजीब झन्नाहट हो रही थी, पर यही होश दिला रही थी। किसी तरह अपने शरीर को मनाकर उठना हुआ, और दिन की तैयारी शुरू हुई। आज वैसे भी बहुत लम्बा दिन था, बहुत ज़रूरी दिन था - प्लांट की जान, उसका बायलर आज लगने वाला था। एक भी चूक, और महीनों की मेहनत एक क्षण में बर्बाद। ऑफिस पहुँचते पहुँचते नवीन के अंदर एक दृढ़ निश्चय बन चुका था - जो भी हो जाए, आज चूक नहीं होने दी जाएगी। कड़ी मेहनत और लम्बी मशक्कत के बाद, आखिरकार काम ख़त्म हुआ, तो ध्यान आया के दिन ढल चुका था और शाम भी रात का रुख अपना चुकी थी। इस बीच चाय और समोसे लगातार सारी टीम का पोषण कर रहे थे। ज़रूरी भी था - एक पल का विश्राम करोड़ों की मेहनत को मिट्टी में मिला सकती है। नवीन इस मण्डली का लीडर, तो उसकी ज़िम्मेदारी भी सबसे अधिक थी। बस, और क्या था। अपने अभी तक के सारे अनुभव को दांव पर लगाकर, जब काम दिन का पूरा हुआ, तब चैन की साँस भर नवीन अपने मनपसंद होटल जी एस ग्रैंड के रेस्टोरंट में खाना खाने वो निकल पड़ा। यूँ तो कुछ सहकर्मी से अच्छी बातचीत थी, पर किसी से भी इतनी मित्रता कभी बनी ही नहीं। और वैसे भी, नवीन को कुछ चीज़ें अकेले करना पसन्द था। खास तौर पर जब उसे अपने मन की थकावट मिटानी होती थी।
"नवीन! तुम यहाँ कैसे?" सहसा एक आवाज़ पीछे से आई। नवीन ने मुड़ कर देखा, तो नीली रौशनी से खेलती पीले बल्ब की रोशनी में उसे वही चहरा दिखाई दिया, जो जाना पहचाना था, जिससे उसका एक पुराना रिश्ता रहा था। हाँ, उसके मन ने उससे कहा, यह वही है।
तविषि वहीं खड़ी हुई थी। उसके साथ एक और सज्जन था। सम्भवतः पहचान का होगा कोई। नवीन हल्के से मुस्कुराया। "आप यहाँ कैसे?"
"__ पावर प्लांट का निरीक्षण करने आयी थी। हमारा काम है आजकल पर्यावरण अभियंत्रो के लिए पैरवी करना। शायद भूल गए तुम।" अपने साथ खड़े सज्जन की ओर संकेत करते हुए फिर बोली, "मेरे सहकर्मी, प्राणेश। प्राणेश, ये नवीन हैं, हमारे कॉलेज के मित्र। कभी सोचा भी न था के इससे यहाँ, ऐसे भेंट होगी।"
हाथ मिला लिया, तो तविषि यह कहकर चली गयी की वो कल बात करेगी। पर नवीन की मन की शांति भंग हो गई थी। यही एक चीज़ उसे पसन्द नहीं थी, पर समय और परिस्थिति आपके वश में नहीं होते, आज फिर उसे संज्ञात हुआ। खाना पूरा कर वो चल पड़ा अपनी बाइक पर प्लांट की कॉलोनी में आवंटित क्वार्टर की ओर, पर पहुँच के भी उसके मन को शांति नहीं मिल रही थी। नींद ने भी साथ देने से जैसे मना कर दिया हो उस रात को। बस, स्मृतियों की एक निरन्तर बहती धारा उसे डुबोए जा रही थी, और नवीन को समझ नहीं आ रहा था के वह उससे कैसे अपने को सुरक्षित करे।
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वह दिन थे इंजीनियरिंग के। तीसरा वर्ष था, और कठिन वर्ष था, पर पढ़ाई की आपाधापी में भी समय निकल ही आता था वह सब करने के लिए जो अधेड़ उम्र में लड़के-लड़की अपने यौवन को पहचानने में। और भी अनेकों रुचियाँ होती हैं युवकों-युवतियों में, और वह सब भी मान्य हैं - संगीत, अभिनय, कला, खेल-प्रतिस्पर्धा। दरअसल नवीन था कॉलेज की फुटबॉल टीम का कप्तान। इंटर-कॉलेज प्रतियोगिता थी, और वह दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी कैम्पस के __ कालेज के विरुद्ध खेलने गया था। हार तो बहुत बुरी हुई थी, लेकिन उस पराजय के बहाने उसकी भेंट तविषि से हुई थी। पर्यावरण विज्ञान में रुचि रखने वाली वह रसायन शास्त्र की छात्रा को भी कुछ अनुभूति तो हुई थी उस दिन, और दोनों के बीच सेलफोन पर मैसेज के माध्यम से वार्ता आरम्भ हुई थी। मैसेज कब घंटों लम्बी चलने वाले फ़ोन काल में बदल गयी, पता ही नहीं चला। पता था तो इतना, के यह संबंध गूढ़ता की अभेद चादर ओढ़ रहा था।
कभी कभी प्रेरणा चाहिए होती है जीवन में आगे बढ़ने के लिए, और कहीं न कहीं नवीन के हृदय में एक परिवर्तन हो रहा था। कुछ दूरदर्शी विचार आ रहे थे उसे, और पूरा प्रयास किया गया के आगे की पढ़ाई के लिए या एक अच्छी नौकरी के लिए वह कुछ करे। गेट परीक्षा निकट थी, और उसमें प्राप्त अंक अनेकों जगहों पर नौकरी के इंटरव्यू तक ले जाने के लिए उपयुक्त थे, अतः नवीन ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। स्कोर अच्छा था, और कुछ जगहों पर उसके सिफ़ारिश पत्र भी स्वीकारे गए। अपेक्षा थी के शीघ्र उसे उचित नौकरी मिलेगी और शायद वह बात कर पाएगा आगे के जीवन के विषय में।
उस दिन वह गया था उसी कॉलेज में मिलने। समाप्ति हो गयी थी शिक्षा की, और समय था काटने को। तो क्यों नहीं तविषि से मिला जाए। वह घुसा ही था कॉलेज के भीतर की उसे तविषि दिख गई किसी के साथ। ध्यान दिया तो जाना की वह उसका मित्र सुमित था। दोनों एक दुसरे में मग्न थे, और उन्हें संसार का कोई अता-पता न था। अनभिज्ञ थे वह दोनों, एक दूसरे में लीन। यह सब क्या था और क्यों था, कुछ समझ नहीं आ रहा था। चंद माह पूर्व ही उसने सुमित से तविषि का परिचय कराया था। क्या पता था, के उसे यह दिन देखना पड़ेगा।
मन में एक अजीब खटास हो गई। क्रोध, उदासी, अविश्वास का वक झुंड मक्खियों सा उसके हृदय और मन को बारम्बार डंक मारता रहा। उसके बाद तो बस एक दिन वो था और एक आज का दिन - न किसी से कोई सम्बन्ध था, न कोई संजोया था। उस परिवेश के लोगों के साथ उसने मानो दूरी बनाने का अटल निर्णय कर लिया था। नहीं जानना चाहता था वो किसी को भी - सम्भवतः उसे उस समय को अपनी स्मृति से मिटाने का एक भरसक प्रयास आरम्भ हुआ था। घरवालों के प्रश्नों का उत्तर अवाक् रहकर दिया जाता जब सब पूछते के उसके कॉलेज के साथी कहाँ हैं, किस हाल में हैं। कोई अलबत्ता सेरिअलों का स्टार बन जाता तो भी उसका वर्णन मुख से न निकलता। बस चन्द ही महीने बाद गेट की परीक्षा था, उसे इलेक्ट्रिकल का परिणाम लाना था, अपनी पसन्द की सरकारी नौकरी के लिए महत्वपूर्ण पड़ाव पार करना था। अपने को डुबा दिया था नवीन ने परीक्षा में रैंक प्राप्त करी। इंटरव्यु में जब निवेदन दिया तो कई कड़े प्रश्नों का उत्तर उसने एक अलग ही स्तर की बेबाक़ी से दिया, जो पैनल के सदस्यों को कुछ सीमा तक प्रभावित कर गया। उसकी नौकरी लगी, और वो भी मुख्यालय में!
काम में अपने आप को डुबो दिया नवीन ने। कोई मित्र नहीं, कोई पहचान नहीं, दफ्तर में भी भोजन अक्सर एकाकी करना - कई लोग अजीब निगाहों से देखते। किन्तु काम को लेकर उसकी मात्र प्रशंसा के कुछ और सुनने को नहीं मिलता। जीवन की छोटी छोटी खुशियों का अभाव लोग महत्वकांक्षा समझ बैठे - बस, कभी सड़क के आवारा कुत्तों को खाना खिलाना या इयरफोन लगा संगीत सुनते हुए किताबें पढ़ना था, जो नवीन को उसकी एक अपनी छोटो सी दुनिया में ले जाता। वही नवीन जो कभी किसी को समझ नहीं आता अपने उस स्वरूप में आता जो कहीं खो गया था, जिसकी आकृति कुछ धूमिल हो गयी थी। नवीन ने लेकिन कभी यह न पता लगने दिया के उसके हृदय में क्या छुपा था।
चौथा साल हुआ, और उसे सिंगरौली आने का आदेश आया। माँ के कहने पर भी उसने विवाह के लिए भारी मन से बात को हाँ कहा, परन्तु मन में एक फाँस थी, जो कभी नहीं निकली थी। पुरानी तस्वीरें, पुरानी मेसेज, पुराने तोहफ़े मिटा तो सकते हैं, पर पुरानी स्मृतियाँ यूँही नहीं जातीं। सिंगरौली मानो जैसे एक अवसर था उस सब से दूर भाग आने का। बस, जैसे के वह प्रसिद्ध शेर था न - मैं और मेरी तन्हाई। उसे क्या पता था, ऐसा होगा।
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आँख खुली, तो फोन का अलार्म चीखता पाया। उठ कर नवीन ने पाया के उसे शीघ्र तैयार हो प्लांट जाना होगा। किसी तरह सब कर करा कर वह बाइक पर पहुँचा तो उसका फ़ोन बज उठा। एक अंजान नम्बर था, पर मन में न जाने क्यों एक अजीब सी चुभन उठी, हृदय में कुछ छलका। फ़ोन उठाया, तो उस ओर तविषि का स्वर था।
"हेलो नवीन, पहचाना? तविषि!"
"हाँ, पहचाना, बताओ," मन के सैंकड़ों प्रश्नों के मध्य बस यही निकल सका।
"क्यों न आज मिलते हैं, जी एस ग्रैंड में? वैसे भी, इतने सालों बाद मिले हो। शुक्र है नम्बर वही है," कुछ हँसते हुए तविषि ने कहा।
नवीन ने हामी भरी, और शाम 7 बजे मिलना तय हुआ। 6 बजने के बाद नवीन क्वार्टर वापिस पहुँच कपड़े बदल जाना था नवीन ने। पर पूरा दिन आज नवीन कहीं खो गया था। उसने कुछ दृश्य देखे थे तब, जो आज भी उसके सम्मुख आ रहे थे। मन में बारम्बार वही घूमते रहे, और काम में अड़चन बनते रहे। आज भगवान की कृपा से कुछ करने को नहीं था, क्योंकि मिस्त्री बीमार होने के चलते आ नहीं पाया। पर अपने केबिन में बैठे बैठे मन टटोलता रहा उन्हीं बातों को। समझ बन्द हो रही थी, सुन्न हो चली थी। एक पीड़ा पुनः उठ गयी थी। पर यह सब....नवीन बस यूँही चुपचाप असमंजस में पड़ा रहा।
शाम हुई, घर गए। कपड़े बदलते हुए भी मन की फाँस बार बार कचोटती रही। क्यों यह सब? अब क्या? क्या मिलेगा इसके बारे में सोच कर?
जी एस ग्रैंड पहुँचा वो। आज सप्ताह के मध्य का दिन था, तो अलबत्ता दफ्तर के लोग नहीं थे वहाँ। सिंगरौली के छोटे से कस्बानुमा नगर में दो या तीन ही तो थे रेस्टोरेंट जो बड़े शहर में रहे व्यक्ति को पसंद आ सकता था। वह नीली रोशनी, वह नब्बे के दशक के फिल्मी गाने, और वहाँ बैठी तविषि। ऑंखे उस ओर गयी तो देखा वह अकेली थी, और उसने उसे देख लिया था, और एक बड़ी मुस्कान से उसका स्वागत किया। थोड़ी कोने की टेबल ली थी, जहाँ कुछ अकेलापन था, कुछ एकांत का भाव था। आर्डर दिया, और खाना खाते हुए कई बातें हुईं। स्मृतियों की झड़ी लगाई गई, मानो कुछ और था ही नहीं। भरसक प्रयास था बीते समय को पीछे खींच लाने का। हँसी, खुशी, अल्हड़पन, यादों की फुलझड़ियाँ तो बहुत जलीं, लेकिन नवीन के मुख पर एक झूठी सी हँसी बनने के अलावा कुछ नहीं आ पाया। बातों बातों में सम्पर्क के अनेकों प्रयास होए, कुछ संकेत दिए गए, पर नवीन मन ही मन हैरान होके नकार देता।
शाम कैसे बीती, समझ नहीं आया। हाँ, समय का आभास बहुत हुआ। "समय बहुत हो गया है, हमें निकलना चाहिए," नवीन बोलै। अचरज की बात यह थी के आज उन दोनों को छोड़ कोई ग्राहक नहीं थे रेस्टोरेंट में।
"कोई नहीं नवीन, कुछ देर रुक जाओ। नहीं तो ऊपर चलो, मैं यहीं ठहरी हुई हूँ," तविषि ने एक दम से कहा।
नवीन ने उस बात को अनसुना कर दिया। बहुत अजीब लगा यह सुन उसे - इतनी निकटता आज? वो भी इतने वर्षों बाद? "मैं चलता हूँ," उसने बिल देते हुए बोला, और देखा के तविषि भी साथ चल पड़ी थी उसके। कुछ अटपटा सा लगने लगा, पर अनदेखा करने का प्रयास तो चलता रहा। जैसे जैसे बाहर की ओर पग बढ़ते रहे, वैसे वैसे तविषि की हँसी और किलकारियाँ छलकती रहीं।
बाहर आए, तो देखा के कोई नहीं था। एकाएक पता चला के हाथ गर्दन पर लिपटे हुए थे। एक छवि बनी हुई थी चेहरे पर, जो प्रयास कर रही थी रिझाने की। एक शरारत थी आँखों में, एक भाव था जो कहने का प्रयास कर रहा था नवीन को समझाने का के उसकी एक ज़रूरत थी।
नवीन ने अपने आप को छुड़ाया। उसे बड़ा ही अजीब लग रहा था यह सब देख कर। "क्या कर रही हो तविषि? लोग देख लेंगे!"
"कौन लोग नवीन, यहाँ कोई नहीं," तविषि हँसने लगी। "वैसे भी, कौन जानता है नुझे यहाँ?"
"सुमित को क्या जवाब दोगे?"
एक अजीब शांति ढाँप गयी क्षण को। तनाव था, पर तविषि ने उसे तोड़ते हुए पूछा - "इस सब का सुमित से क्या लेना देना?"
"मेरा नहीं, सुमित का तो होगा।"
"सुमित को जो नहीं पता, उससे तुम्हे क्या लेना देना? वैसे भी, उस जैसे निरर्थक व्यक्ति के साथ मैं क्या करूँगी?"
"मतलब?" नवीन को झटका लगा। क्या उसका मैन सही राह पर चल पढ़ा था? जो चित्र मन उकेर रहा था, क्या वही सत्य था?
"एक ऐसे व्यक्ति को क्यों अपने से जोड़ूँ, जो कभी भी मुझे वो नहीं दे सकता जो मुझे चाहिए? एक दिन उठी तो देखा, आदर्शवाद उसके मन पर सवार हो गया। लाखों की तनख्वा को त्याग पहुँच गया एक कस्बे में काम करने, और मुझे भी झोंक दिया इस नरक नुमा जीवन में। क्या मिला है मुझे इस सब से? मैं छोड़ देना चाहती हूँ इस जीवन को।"
"मैं ही मिला था तुम्हें?" नवीन ने एक तल्ख़ स्वर में पूछा।
"मुझे नहीं पता के तुम मुझमें रुचि रखते थे? सम्भवतः आज भी है, वरना मुझसे मिलने नहीं आते यहाँ। मैं आज भी वही हूँ नवीन, और समझ गयी हूँ के मुझे वो जीवन चाहिए जो तुम मुझे दे सकते हो। प्रेम तो तुम्हें मुझसे आज भी है न? मुझे निराश मत करो नवीन, मुझे अपना लो। हम दोनों एक दूसरे को एक और अवसर क्यों नहीं दे सकते?"
नवीन ने एक निगाह भर कर तविषि की ओर देखा। मन में प्रश्नों का जाल, भावनाओं का एक समंदर जो अब तक प्रत्यक्ष था, एकाएक शाँत हो गया। एक किरण एक दम से अंधकार को चीर के मन के कोनों को प्रकाशमय कर गयी। नवीन ने तविषि की ओर देख कर एक मन्द से मुस्कान अपने चेहरे पर उकेरी।
"बस तविषि, आज मुझे अपना उत्तर मिल गया।"
बस, इतना कहकर नवीन ने अपनी बाइक को शुरू करा, और अंधेरी रात को चीर तविषि को बिन देखे छोड़ अपने घर की ओर चला गया।
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