सुखोचक - 3
"एक बात का ध्यान रखना है सभी को। कोई भी बहु बेटी इन मुसलमानों के हाथ जीवित न लगे। अगर हो सके तो पिता उन्हें स्वयं मार दें, भाई अपने हाथों से उनका गला घोंट दे - हमारी लाज को इस तरह हम कतई न हारेंगे, जीते या मरते। जो बाप या भाई न कर सके, तो बेटियां बहुएं अपने आप किसी कुएं में कूद कर जान दे दें, या चाक़ू से अपने आप को रेत कर या घोंप कर अपनी लाज की रक्षा करें।" सुखमनी रोने लग पड़ी। नौ साल की इस लड़की को मृत्यु से बहुत भय था, पर उस पगली को कौन समझाता के लाज खोने का, नाक काटने से जो मान का नाश होना था, वो उससे भी बढ़कर था? कई महिलाओं ने अपनी सिसकियाँ दबा लीं, कुछ ने कड़वे घूँट पी कर हामी भरी, और सब जत्थे चल पढ़े। ऐसा ही एक जत्था किशोरी लाल और उसके भाई कन्हैया का था, जिनके साथ सरला और सुखमनी और माँ चाची भी थे। मशाल की रौशनी में गति से चलना थोड़ा कठिन था, और वह भी पीछे की ओर से सुखोचक से निकलना था। हिन्दुओं के इलाके का पलायन पता नहीं कैसे थम सकता था, जब तक के वह जम्मू नहीं पहुँचते, चाहे कोई गाँव ही पहुंचे। शायद शिवजी का आशीर्वाद था, के चुपचाप सारे हिन्दू सुखोचक से निकल सके, और कोई हरकत नहीं...