मिट्टी के दीए
सरजू निराशा के बादलों से घिरा बैठा था। दीवाली की दोपहर हो गयी थी, और अभी भी सरजू के ठेले से सामान ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था। बड़ी आस से उसने इस साल सोचा था के मैं कुछ काम करूँगा, अपने पैरों पर खड़ा होकर दिखाऊंगा अपने माँ बाबा को। पर अब वो किस मूँह से वापिस घर जाता ये सब सामान लेकर? सुना था, दीवाली सबके घर सुख, रोशनी और समृद्धि लेकर आती है, लेकिन इस वर्ष उसके घर में तो बस अंधकार और दुःख छाने वाला था। मंदी के दौर में घर में रोटी के लिए कुछ पैसे भी नहीं बचे थे। सरजू नाकारा था, अपने आप को इस तरह घर पर बैठा देख के बारी उसे खुद से घृणा होने लगती थी। हठ के चलते पहले विद्यालय में कुछ मेहनत न करी, और फिर एक दिन बस घर बैठ गया यह कहकर के अब मेरा मन न लगता। माँ बाप दो जून की रोटी कमाने में इतने व्यस्त थे के उन्हें उसे समझाने का भी वक़्त न था। बस एक बार डाँट कर, एक बार फुसला कर हार मान लिए। और वैसे भी तो छोटी बहनें थी, जिनको पालने से उतरे अभी दिन ही कितने हुए थे - कमसकम वो घर पर उन्हीं का ध्यान रख लेगा। लेकिन मंदी ने उन्हें भी नाकारा बना दिया। अति तो तब हो गयी जब उस दिन घर में आटा भी ख़त्म हो गया।...