मैं आदमी हूँ
मैं आदमी हूँ, और अक्सर मैं बदनाम ही होता जाता हूँ, हर किसी की खुशी, अपनी कुचलकर हर दिन परोसता जाता हूँ। मेरी चुप्पी में छुपी है टीस, मुस्कान से ढकता जाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। कहीं पिता की रात की लोरी और कहीं पति के प्रेम सुनाता हूँ, कहीं बेटे का कर्तव्य और कहीं मित्र का भाग निभाता हूँ। मेरे अंतिम श्वास की घड़ी में बस मैं इतना ही कह पाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। कभी दफ्तर के तनाव से तो कभी दुःख से जूझता जाता हूँ, जीवन की आपाधापी में अक्सर पीछे रह जाता हूँ। मेरे जीवन का कोई मोल जो था, उसे गिरवी रखता जाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। औरों की खुशी में अपनी खुशी, बस यही बात दोहराता हूँ, अपना क्या और पराया क्या, सब कुछ ही छोड़ता जाता हूँ। बन इस समाज की धरा की ईंट, एक उज्ज्वल कल को सजाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। कभी सोचता हूँ के मेरे जीवन का सार था ही क्या? एक क्षण सुख की छाँव, और शेष धूप में बिताता हूँ। कोई चला जाता है अनदेखा कर, तो कोई धिक्कार जाता है, बस आदर ...