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Barog - 2

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  As they walked in, Saurabh felt a strange burst of uncomfortable heaviness all around him. It was as if the air in the unfinished tunnel had become extremely heavy, almost to the point of being suffocated. And yet it was not suffocation; rather it felt that the body was all of a sudden wrapped, somewhat embalmed in something invisible. The light of the mobile phones doubling as torches also seemed to be somewhat bent, or was this a trick being played by the mind? Saurabh could not decipher this eerie feeling all around him. All of a sudden Adhir spoke up. “Why are we standing here? Let’s go back!” The three started to tread backwards, and soon, they were out of the tunnel. It was only now that they could see each other clearly, and there they spotted the same cloud of unease over the faces of the other two that perhaps was also present on their own. “What the hell was that!?” Ranjan was perhaps the most freaked out, having nearly screamed out the question in a fit of anger. “Dare...

Barog - 1

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Saurabh was standing with his friends at the tunnel of Barog station. The train was yet to come. Having come prepared with every detail on the phone, he had decided for sure that he would walk through the haunted tunnel. The long drawn summer and the brief monsoon in Shimla had given way to the autumn spell, bringing a nip in the air while the afternoon sun’s languid nature had made his small roadside resort residence’s lawns become an ideal spot to lull around.  But lull he would not. It was his mission to explore the history, as he drove around to visit the various places like the Dagshai cantonment that had housed Mahatma Gandhi and had been a theater to the mutiny of the Irish soldiers during the Home Rule movement of 1914 in an encore, albeit a much smaller one, of the Curragh incident. Even more was his interest to check up on the remnants of the Gurkha forts, a testimony to the theatre of war the region had been for nearly fifty years in the 19th century between the various ...

मिट्टी के दीए

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सरजू निराशा के बादलों से घिरा बैठा था। दीवाली की दोपहर हो गयी थी, और अभी भी सरजू के ठेले से सामान ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था।  बड़ी आस से उसने इस साल सोचा था के मैं कुछ काम करूँगा, अपने पैरों पर खड़ा होकर दिखाऊंगा अपने माँ बाबा को। पर अब वो किस मूँह से वापिस घर जाता ये सब सामान लेकर? सुना था, दीवाली सबके घर सुख, रोशनी और समृद्धि लेकर आती है, लेकिन इस वर्ष उसके घर में तो बस अंधकार और दुःख छाने वाला था। मंदी के दौर में घर में रोटी के लिए कुछ पैसे भी नहीं बचे थे। सरजू नाकारा था, अपने आप को इस तरह घर पर बैठा देख के बारी उसे खुद से घृणा होने लगती थी। हठ के चलते पहले विद्यालय में कुछ मेहनत न करी, और फिर एक दिन बस घर बैठ गया यह कहकर के अब मेरा मन न लगता। माँ बाप दो जून की रोटी कमाने में इतने व्यस्त थे के उन्हें उसे समझाने का भी वक़्त न था। बस एक बार डाँट कर, एक बार फुसला कर हार मान लिए। और वैसे भी तो छोटी बहनें थी, जिनको पालने से उतरे अभी दिन ही कितने हुए थे - कमसकम वो घर पर उन्हीं का ध्यान रख लेगा। लेकिन मंदी ने उन्हें भी नाकारा बना दिया। अति तो तब हो गयी जब उस दिन घर में आटा भी ख़त्म हो गया।...

एक और अवसर - एक कहानी

सिंगरौली में गर्मियों का मौसम बहुत ही मुश्किल से बीतता है। श्याम तो खासतौर पर बहुत ही सकट गर्म होती है, मानव की सूरज जाते-जाते अपनी गर्मी रात को उधार दी क्या हो। वैसे ही शहर में पावर प्लांट की कोई कमी तो है नहीं उनकी गर्मी भी शायद इस बेइंतहा गर्मी में कुछ ना कुछ योगदान करती होगी। बहरहाल जिस तरह यह मौसम बीत रहा था, उसमें कुछ नवीनता तो नहीं थी हां इतना जरूर था के लोगों के अंदर बारिश के लिए एक अजीब सा उतावलापन पैदा हो रहा था। हाल ही में नवीन दिल्ली से आया था अपनी पोस्टिंग संभालने के लिए। दिल्ली की गर्मी की तो उसे बहुत जानकारी थी लेकिन उसके ख्यालों में भी उसने ऐसी गर्मी के बारे में सोचा तक ना था। दिनभर पावर प्लांट की झुलसती गर्मी से बेहाल हो कर वह जब शाम को अपने क्वार्टर पहुंचता था तो दरवाजा खोलने पर अंदर से आती गर्म हवा के थपेड़ों से लिपट जाता था। किस मनहूस घड़ी में उसकी तकदीर लिखी गई थी, यही सोच सोच कर घर में ऐसी चलाता और एक घंटा बिना कुछ करे बस वही सोफे पर सो जाता। ना जाने कब रात आ जाती, एक का एक उसकी नींद खुलती, कभी खाना बनाता अपने लिए और और कई बारी भूखे पेट ही सो जाता। हां, लेकिन ए...