Safar
चलते चलते जो आवाज़ लगाई मेरे माज़ी, मेरी तन्हाई ने मुड़कर देखा तोह पाया के मील के पत्थर पर दोनों आराम पसर कर रहे थे हैरां परेशां सा हुआ मैं, पुछा मैंने "क्यों पीछा कर रहे हो?" तन्हाई हंसकर बोली "मुझसे दामन कैसे छुडाओगे?" "तन्हाई तो सखी थी मेरी, पर अब नहीं" कहा मैंने "जो साथ न चाहूँ तोह क्यों संग चलती हो?" माज़ी ने मेरे मुस्कुराकर कहा मुझसे "मैं तुम्हारा ही माज़ी हूँ, तन्हाई की रूह हूँ जो मुझसे दामन न छुड़ा सको तो तन्हाई से क्या पीछा छुडाओगे?" "है तू मेरा माज़ी, मगर मेरे दिल में तेरे लिए नहीं है कोई जगह नहीं चाहता काँटों का बिछौना नहीं चाहता आँसूं भरी रात" बस इतना कहा और मैं चलता बना कुछ दिनों बाद खबर आई थी मेरा माज़ी और मेरी तन्हाई वहीँ खड़े हैं वहीँ, उस मील के पत्थर पर, इंतज़ार कर रहे हैं यादों के उसी रास्ते पर मेरे लौटने की